मित्रों , पिछले
लेख मे, ज्योतिष भागयवादी बनाती है या नहीं,
इस विषय पर चर्चा का आरम्भ किया था | उसी
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए आज ज्योतिष के कार्मिक आधार पर बात करते हैं |
भगवत गीता मे श्री
कृष्णा ने कहा कि, मनुष्य हर पल सिर्फ कर्म ही कर सकता है
और कोई सत्ता उसके पास नहीं है | ज्ञान योग, भक्ति
योग, कर्म योग आदि भी कर्म ही है | जिसे
हम अकर्मण्यता कहते हैं वह भी कर्म है | शारीरिक क्रियाओं
का निश्चेष्ट चक्र (effortless
cycle) हो या हमारे चेष्ट (efforts) कार्य
सब कर्म है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात
जो भगवत गीता मे श्री कृष्णा ने कही है वह आत्मा के अजर (age-less) और
अमर (perpetual) गुण
के विषय मे कहा है। आत्मा की अनंत
यात्रा की संकल्पना (concept) को मुख्य्तः बताया
गया है।
इन दोनों ही तथ्यों
को केंद्रबिंदु मे रखकर ही हम मानव जीवन यात्रा एवं उसके इस जन्म के उद्देश्य को
समझ सकते हैं।
यदि
कर्म ही आधार है तो भाग्य (fate) क्या है ?
कर्म और भाग्य की
संकल्पना के बीच सदा एक बहस छिड़ी रहती है।
मुझे इसका एक मुख्य कारण समझ आया वह यह कि , दोनों
ही को समझने मे फेर है। भाग्य को कुछ ऐसा समझा गया कि यह कोई ऐसी जंजीर है जोकि
मानव जो जकड चुकी है और उसको असहाय बना चुकी है , उसके
वश मे अब कुछ भी नहीं। वहीँ कर्म को सिर्फ
और सिर्फ चेष्टा (efforts) और अनुसरण (chase)
से जोड़ कर ही प्रचारित किया गया। दोनो ही विचार विरूपित (distorted) हैं।
कहते हैं भाग्य कर्म
से बनता है। सत्य है , पर
कौन से और कैसे कर्म से? उत्तर एक ही है;
हर तरह के कर्म से। भाग्य कर्म का परिणाम है। कर्म चुना जा
सकता और परिणाम सिक्के के दूसरे पहलु की तरह अपने आप आ जाता। चलिए इसको थोड़ा सा और
समझते हैं।
आत्मा अपनी अनंत
यात्रा मे अपनी प्रज्ञा (intelligence) के अनुसार चुनाव करती
है क्योंकि चुनाव कर्म का आधार है। कुछ भी
करने से पहले हम यह तय करते की हमको क्या करना है। यह चुनाव उस पल मे आत्मा की प्रज्ञा (intelligence)
पर निर्भर करता है। अतः परिणाम भी जाने अनजाने मे चुन लिया
जाता। हर कर्म के साथ ही आत्मा का आत्मबोध
बढ़ता है। मनोरंजक बात यह है कि कोई आवश्यक
नहीं कि परिणाम उस पल या उसी जन्म मे ही आ
जाए। यह आत्मा के आत्मबोध के बाद विकास पर
निर्भर करेगा कि वह परिणाम भोगने के लिए कब इच्छुक है , यानि
किसी भी कर्म के परिणाम तभी मिलते जब आत्मा उस परिणाम को भोगने की चेतना विकसित कर
लेती है। यह परिणाम कुछ भी हो सकते हैं।
जैसे, किसी व्यक्ति के पास धन है पर कोई गरीब
है। कोई अचानक बहुत अच्छे परिणाम पा जाता और कोई बहुत ज्यादा परिश्रम (hard
work) ही करता रहता है पर परिणाम उस अनुपात मे
नहीं आते। कोई हमेशा अच्छा करता है पर
उसके काम की आलोचना ही होती रहती है। किसी
का वैवाहिक जीवन सुखी है और किसी का द्वेष
भरा हुआ। इस प्रकार अनगिनत परिणाम
हमको देखने को मिलते। इस प्रकार अनगिनत परिणाम हमको देखने को मिलते।
कर्म का जो चुनाव
आत्मा करती और फिर उसके अच्छे बुरे परिणाम जो अपरिहार्य (inevitable) है।
वह हमारे प्रारब्ध का निर्माण करता है।
तो
फिर हम जन्म क्यों लेते हैं और प्रारब्ध की क्या भूमिका है ?
जैसा की ऊपर उल्लेख (mention)
किया गया है की आत्मा जब चेतना के उस स्तर तक पहुँचती है जहाँ
वह परिणाम को भोगने के लिए तत्पर (ready) होती है तब अपने उसके
जन्म की रूपरेखा बनती है। यह परिणाम अच्छे
और बुरे दोनों हो सकते हैं। (वैसे
अध्यात्म मे अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं होता, यह
सिर्फ एक दृष्टिकोण है)
इस रूपरेखा के अध्यन
को ही ज्योतिष शाश्त्र के माध्यम से किया जाता है। यानि ज्योतिष सिर्फ कर्म द्वारा बनाये गए
प्रारब्ध और उस के फल जो आत्मा जीवन मे भोगेगी उसका एक विश्लेषात्मक अध्यन है।
तो फिर हमारे वश मे
कुछ नहीं, यदि प्रारब्ध मे यह तय है की हम यहाँ
क्या भोगेंगे, क्या यह सही है ?
इसका उत्तर सिर्फ यही
है कि यह सोंच त्रुटिपूर्ण (faulty)
है। यदि हम यहाँ कुछ कर नहीं सकते तो जन्म लेने का उद्देश्य
क्या है ? पिछले जन्म मे भी हम कर्म के लिए
स्वतंत्र थे, इस जन्म मे एवं आगामी जन्मों मे भी हम
कर्म के लिए स्वतंत्र होंगे।
और एक अच्छा समाचार
यह है कि , हर जन्म मे चेतना का विकास होता है जिस
से हमारी प्रज्ञा (intelligence) बेहतर होती है और,
हम सही चुनाव कर पाते हैं।
यहाँ यह आवश्यक है कि
हम कुछ और तथ्य समझ लें।
१. संचित कर्म :
यह प्रारब्ध है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका
है।
२. अर्जित कर्म
: यह कर्म लेने के बाद करते हैं।
३. आगामी कर्म
: यह कर्म हम भविष्य मे करेंगे।
४. क्रियमण कर्म
: वह कर्म जो अभी किए जा रहे हैं और इन कर्मों के फल भी शीघ्र फलीभूत हो जाते हैं।
एक और वर्गीकरण है :-
१. दृढ कर्म :
यह प्रारब्ध का वह कार्मिक भाग है जो आत्मा को अवश्यम्भावी (inevitable) भोगना
होगा और अपने आध्यात्मिक पाठ सीखने होंगे।
इसमे शुभ अशुभ सभी तरह की घटनाएं सम्मिलित हैं। संसार मे इसको ही ले कर बहस है की भाग्य का
लिखा कोई नहीं टाल सकता।
२. अदृढ़ कर्म
: यह वह कार्मिक भाग है जो अर्जित कर्मों द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। इन्ही कर्मों को ज्योतिष उपाय, प्रार्थना
की शक्ति एवं आध्यात्मि अभ्यास से (जिसमे चेष्टा कर्म भी आता है ) प्रभावित किया
जा सकता
३. दृढादृढ़ कर्म
: यह वह कर्म हैं जो इच्छा शक्ति,
चेष्टा , प्रार्थना या दूसरे ज्योतिष उपाय द्वारा
आंशिक रूप से प्रभावित किये जा सकते हैं।
ज्योतिष शाश्त्र इन
सभी कर्मों का अध्ययन एवं विश्लेषण करता है और, एक
सच्चा ज्ञान ज्योतिषी उस विश्लेषण को सार्थकता से अपने यजमान (client) को
बताता है।
आज यहीं पर विराम
देता हूँ। अगले लेख मे जन्म योजना एवं
सांसारिक सम्बन्ध के विषय को लेंगे जो कर्म पर और प्रकाश डालेगा।
सप्रेम
अनुरोध
image courtesy : google images - copyright free
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Have a blessed time ahead.